30 मई शहादत दिवस पर विशेष: तिलाड़ी के शहीदों को याद करने का मतलब

30 मई शहादत दिवस पर विशेष: तिलाड़ी के शहीदों को याद करने का मतलब
फोटो : वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की फेसबुक वॉल से साभार

वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की फेसबुक वॉल से साभार
अरे ओ जलियां बाग
रियासत टिहरी के अभिमान!
रंवार्इं के सीने के दाग,
तिलाड़ी के खूनी मैदान!
जगार्इ जब तूने विकराल,
बगावत के गणों की ज्वाल।
उठा तब विप्लव का भूचाल,
झुका आकाश, हिला पाताल।
मचा तब शोर भयानक शोर,
हिला सब ओर, हिले सब छोर।
तिड़ातड़ गोली की आवाज,
वनों में गूंजी भीषण गाज।
रुधिर गंगा में स्नान,
लगे करने भूधर हिमवान।
निशा की ओट हुर्इ जिस ओर,
प्रलय की चोट हुर्इ उस ओर।
निशाचर बढ़ आते जिस ओर,
उधर तम छा जाता घन-घोर।
कहीं से आती थी चीत्कार,
सुकोमल बच्चों की सुकुमार।
विलखती अबलायें भी हाय!
भटकती फिरती थी निरुपाय।
लुटी कुछ माताओं की गोद,
लुटी कुछ बहिनों की लाज।
पुंछा कुछ सतियों का सिंदूर,
गया कुछ का छीना सुसुहाग।
मगर थी फिर भी अपनी आन,
मगर थी फिर भी अपनी शान।
निरंकुश सत्ता का स्वीकार,
नहीं था फिर भी अत्याचार।
बुझा कब मेघों की बौछार,
सकी है धरती मां की धाग?
रंवार्इं के सीने के दाग,
तिलाड़ी के खूनी मैदान।
शहीदों के उज्जवल बलिदान,
दिलायेंगे तेरी पावन याद।
रहेगा जब तक तू आजाद,
जलेंगे शत-शत क्रान्ति चिराग!
जहां तक होंगे लाल निशान!
अरे ओ जलियांवाले बाग,
रंवार्इं सीने के दाग।
रियासत टिहरी के अभिमान,
तिलाड़ी के खूनी मैदान।
                                 - मनोहरलाल उनियाल ‘पथिक’
उत्तराखंड के इतिहास में वर्ष 1930 का विशेष महत्व है। इस साल दो महत्वपूर्ण घटनायें हुई। पहला 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार किया था, दूसरा 30 मई 1930 को अपने हक-हकूकों को लेकर रंवाई के तिलाड़ी में अपनी ही निहत्थी जनता पर राजशाही ने गोली चलाई। इसमें कई आंदोलनकारियों ने अपना बलिदान दिया। इन दो घटनाओं ने हमारी चेतना को आगे बढ़ाने का काम किया। इन दोनों का बड़ा गहरा नाता है, उत्तराखंड में आंदोलनों को समझने का। जहां एक ओर अंग्रेजी सेना में शामिल वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर इतिहास में जनपक्षीय समझ की इबारत लिखी, वहीं तिलाड़ी में हमारे ही राजा ने अपनी निहत्थी जनता को गोलियों से भून कर अपने जनविरोधी चेहरे से नकाब उठा दी। आज 30 मई है। तिलाड़ी के शहीदों को याद करने का दिन। टिहरी राजशाही के दमनकारी चरित्र के चलते इतिहास के उस काले अध्याय का प्रतिकार करने का दिन। उन सभी शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि, जिन्होंने हमें अपने हक-हकूकों के लिये लड़ना सिखाया।
तिलाड़ी कांड के 90 वर्षो बाद आज हम सब उस लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं जिसमें बताया जाता है कि हमें बहुत सारे संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं। हां, संविधान ने हमें  बहुत सारे अधिकार दिये हैं, लेकिन व्यवहार में कुछ बदला नहीं है इन वर्षों में। जल, जंगल और जमीन के सवाल वहीं खड़े हैं, जिनके लिये तिलाड़ी में किसानों ने अपना बलिदान दिया था। ये सवाल और खतरनाक होकर हमारे सामने खड़े हैं। देश में भारी बहुमत से चुनी भाजपा सरकार है, उत्तराखंड में भी भाजपा की सरकार है, ऐसे समय में हमें जंगल और जमीन से अलग करने के लिये कानूनों को पास किया जा रहा है। पहला है उत्तराखंड का भूमि कानून जिसके तहत पूंजीपतियों को कितनी भी जमीन खरीदने की छूट होगी। यहां लीज और अब 'कांटेक्ट फार्मिंग' के नाम से बड़े पूंजीपतियों को जमीनें सौंपने की साजिश सरकार कर रही है। ऐसे समय में तिलाड़ी के हक-हकूकों के लिये शहीद हुये लोगों की स्मृति और प्रासंगिक हो जाती है। नया रास्ता दिखाने वाली हो जाती है। तिलाड़ी के शहीदों को शत-शत नमन।
उत्तराखंड के इतिहास में तिलाड़ी को याद करने का मतलब है, प्रतिकार की एक सशक्त धारा को याद करना। एक ऐसे समय और व्यक्तियों को भी याद करना जो अपनी थाती को बचाने के लिये लड़ने और सच के साथ खड़े होने की ताकत से भरे हैं। उत्तरकाशी की यमुना घाटी में स्थित बडकोट के पास है तिलाड़ी। टिहरी रियासत ने जनता के हक-हकूकों को छीनने के लिये दमनकारी नीतियों का सहारा लिया था। इसके खिलाफ जनता तिलाड़ी के मैदान में रणनीति बनाने के लिये सभा कर रही थे। लोगों का गुस्सा भी बढ़ रहा था। दमनकारी नीतियों, नौकरशाही, बेगार, प्रभु सेवा, बढ़े हुये करों से भी यह प्रतिकार जुड़ा था। देश में आजादी के आंदोलन की हलचल का प्रभाव भी इस आंदोलन में था। 
रंवाई घाटी में रियासती प्रशासन के दमन के खिलाफ हालांकि प्रतिकार के स्वर 1820 से ही शुरू हो गये थे। 1835 में सकलाना तथा रवांई में आंदोलन चला। 1851 में सकलाना की अठूर पट्टी में आंदोलन हुआ। उस समय गन्तूर, रामसिराई और रंवाई में ढंढक दबाये गये। राजशाही के क्रूर दमन के खिलाफ जनवरी 1887 को ढंढक हुआ। कुजड़ी में 1903 में ढंढक हुई। 1906 में खास पट्टी में ढंढक हुई। 1915 में जंगलाती बंदोबस्त तथा सौण्या सेर एवं बिसाउ  प्रथा के खिलाफ कडाकोट, रमोली और सकलाना पट्टियों में हुआ। उसके बाद 1927-28 में नये वन बंदोबस्त द्वारा जंगलात के अधिकारों को सीमित किया गया। इससे रंवाई प्रतिरोध की पृष्ठभूमि बनी। इस दौर में राजगढ़ी वन आंदोलन चला। मई 1930 में रंवाई में जिस आंदोलन की अभिव्यक्ति हुई वह न तो एकएक हुई घटना थी और न सिर्फ वन अधिकारों को सीमित करना ही उसका अकेला कारण था। जंगलात की नई व्यवस्था के अन्तर्विरोधों तथा रंवाईं की जनता को इसने असंतोष को अतिरिक्त ऊर्जा दी। 
खैर, इस पर लंबी बातचीत होगी। फिलहाल तिलाड़ी के शहीदों पर। 1927-28 में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया। रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणों ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये। जिससे ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये। वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते।
टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रूप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता। यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी। जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे।
उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणों से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो। यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी। टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें ‘आजाद पंचायत’ की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है। उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपने उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे।
इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चन्द्राडोखरी नामक स्थान को चुना गया। इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी। आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनसमूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया। जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये। 28 जून, 1930 को ‘गढ़वाली’ पत्र ने मरने वालों की संख्या सौ से अधिक बताई। इस गोली कांड की बर्बरता को यह लोकगीत व्यक्त करता है-
ऐंसी गढ़ी पैंसी,
मु न मारया चकरधर मेरी एकात्मा भैंसी।
तिमला को लाबू,
मु न मारया चकरधर मेरो बुड्या बाबू।
भंग को घोट,
क्नु कदु चकरधर रैफलु की चोट।
लुवा गढ़ी कुटी,
कुई मार गोली चकरधर कुई गंगा पडौं छूटी।
हलीक को फाल,
गंगा पड़ी छूटी जोई भानदी कपाल।
तिलाड़ी के शहीद (30 मई, 1930)
1.अजीत पुत्र काशी सिंह
2. झूना सिंह पुत्र खड़ग सिंह 
3. गौरू पुत्र सिनकया
4. नारायण सिंह पुत्र देबू सजवाण
5. भगीरथ मिस्त्री पुत्र जुल्मू
6. हरीराम पुत्र रूपराम
तिलाड़ी के आंदोलनकारी (जेल में शहीद)
1. गुन्दरू पुत्र सागरू
2. गुलाब सिंह ठाकुर
3. ज्वाला सिंह पुत्र जमना सिंह
4. जमन सिंह पुत्र लच्छू
5. दिला पुत्र दलपति
6. मदन सिंह
7. लुदर सिंह पुत्र रणदीप