इतिहास: 100 साल पहले यहां हुई थी रक्तहीन क्रांति

इतिहास: 100 साल पहले यहां हुई थी रक्तहीन क्रांति
इतिहास: 100 साल पहले यहां हुई थी रक्तहीन क्रांति

बागेश्वर:100 वर्ष पहले 14 जनवरी 1921 को मकर संक्रांति के दिन बागेश्वर के लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत की ओर से थोपी गई कुली बेगार प्रथा का अंत कर दिया था। तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने प्रभावित होकर इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया था।
बागेश्वर में लगने वाले उत्तरायणी मेले का धार्मिक के साथ ही ऐतिहासिक महत्व भी है। उस दौर में राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बड़े आंदोलन की तैयारी चल रही थी। तब पर्वतीय क्षेत्र में आवागमन के साधन नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार कुली उतार और कुली बेगार जैसी अमानवीय व्यवस्था का सहारा ले रही थी। कुली बेगार आंदोलन को सौ वर्ष पूरे होकर 14 जनवरी 2022 में 101 वर्ष हो गए। लेकिन इस बार कोविड की तीसरी लहर के कारण उत्तरायणी मेले पर प्रतिबंध है। हालांकि धार्मिक कार्य संचालित होंगे। जिसके लिए बागनाथ मंदिर सजन और संवर गया है। गांव में होता था रजिस्टर
अंग्रेजी शासनकाल में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में बेगार प्रथा का चलन था। नियम के तहत किसी भी ब्रिटिश अधिकारी के भ्रमण के दौरान क्षेत्र के नागरिकों को बारी बारी से कुली बनाया जाता था। गांव के पंचायत प्रतिनिधियों के पास कुली बेगार प्रथा का रजिस्टर होता था। अधिकारियों के सामान को पहाड़ों में ढोने का जिम्मा कुली का ही होता था। ऐसा न करने पर कठोर दंड दिया जाता था। 1910 में हुई थी याचिका दायर
वर्ष 1910 में पहली बार एक किसान ने इस प्रथा के खिलाफ इलाहाबाद न्यायालय में याचिका दायर की। न्यायालय ने बेगार प्रथा को गैर कानूनी प्रथा करार दिया। एड. भोलादत्त, पांडे, कुमांऊ केसरी बद्री दत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी, हरगोविद पंत, रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर बद्रीदत्त जोशी, तारा दत्त गैरोला ने आंदोलन को धार दी थी।
बापू की अपील का हुआ था असर
कुली उतार आंदोलन की सफलता में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अपील का बड़ा असर हुआ था। कुमाऊं परिषद के एक दल ने गांव गांव जाकर लोगों को प्रथा के खिलाफ गोलबंद किया। एक दल ने नागपुर जाकर महात्मा गांधी को इसकी जानकारी दी। आंदोलन से प्रभावित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया।